Social Icons

Sunday, December 30, 2007

बगिया

आसमान में उड़ना चाहा, पंखों में कुछ तीर चुभे है

अधरो ने गाना तो चाहा, पर मन में ही गीत दबे हैं
खिलखिलके हसना तो चाहा, मुसका नोपर लगे हैं ताले
काँटों की राहों पर चलकर इन पैरों में पड़े हैं छा ले
आशाओं के वंदनवार से मन का द्वार सजाना चाहा
अपने लहू से सिँचके हमने ये गुलज़ार सजाना चाहा
हर आशा को चोट लगी है, और कलियों को ज़ख़्म मिले हैं
हाल न पूछो इस बगिया का, फूल के बदले शूल खिले हैं
चाहा कुछ था पाया कुछ है, किस्मत ने कुछ यूँ लूटा है,
पता नहीं कब हाथ से अपने ख़ुशियों का दामन छूटा है

No comments:

Popular Posts

Blog of the Day - Daily Update