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Saturday, July 28, 2007

हमारी क़िस्मत...

ये न थी हमारी क़िस्मत के निसाले यार होता .
अगर और जीते रहते यही इन्तजार होता ..

तेरे वादे पे जिये हम तो ये जान झूठ जाना.

के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता ..

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-नीय कश को.

ये खालिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ..

ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह.

कोई चारा-साज होता कोई ग़मगुसार होता ..

रंगे-संग से टपकता वो लहू के फिर न थमता.

जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ..

कहूँ किससे मैं के क्या है शबे-ग़म बुरी बला है.

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता ..

हुए हम जो मर के रुसवा हुए क्यूँ न ग़रक़े दरिया.

न कभी ज़नाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता ..

ये मसाईले-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’.

तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख्वार होता ..

-मिर्जा गालिब

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