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Saturday, July 28, 2007

अहा! बसंत तुम...

अहा! बसंत तुम आए।
तरु-पादप पतवार सहित
वन-उपवन नवरंग पाए।
अहा! बसंत तुम आए।

उत्तर फागुन वन पतझड़ था
अन्तर्मन एक व्यथा लहर था
हलाँकि प्रियतम दुर नही थे
शायद चैती हवा असर था
सहसा सब कुछ बदल गया
मन मौन तोड़ मुसकाए
अहा! बसंत तुम आए।

सज गई सुहानी हरियाली
कोमल किसलय फुनगी लाली
फूल पंखुरियाँ सतरंगी उड़े
कभी इस डाली कभी उस डाली
ये रंग सभी सुगंध भरे
मधुकंठिनी छुप-छुप गाए
अहा! बसंत तुम आए।

कुछ ऐसी अल्हड़ हवा चली
लेती अंगड़ाई कली-कली
लघु पहन बसंती परिधान
युवती इत्तराई बन तितली
इन कंचन कामिनी फूल पे
प्रेमी मन भंवरा मंडराए
अहा! बसंत तुम आए।

रस रंग भाव मधु उमंग हिये
जग मदमत्त जैसे भंग पीये
ऐ,रितुराज कहाँ से तुमने
इतने गंध-सुगंध लिए
कुछ ओर भी है अदृश्य जरुर
रहि-रहि मन को उकसाए
अहा! बसंत तुम आए।

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