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Friday, June 01, 2007

फिर किसी याद ने शब भर हाय जगाया मुझ को ...

फिर किसी याद ने शब भर हाय जगाया मुझ को
क्या सज़ा दी हाय मोहबत ने खुदाया मुझ को

दिन को आराम हाय ना रात को है चैन कभी
जाने किस ख़ाक से क़ुदरत ने बनाया मुझ को

दुख तो एह हाय केह ज़माने मैं मिलाए घर सभी
जो मिला हाय वोह मिला बन केय पराया मुझ को

जब कोई भी ना रहा कंधा मेरे रोने को
घर की दीवारों ने सीने से लगाया मुझ को

यू तो उमी
-ए-वफ़ा तुम से नहीं हाय कोई
फिर चरागों की तरह किस नेय जलाया मुझ को

बेवफ़ा ज़िंदगी ने जब छोड़ दिया हाय तन्हा
मौत ने प्यार से पहलू मैं बिठाया मुझ को

वो दिया हूँ जो मोहब्बत ने जलाया था कभी
ग़म की आंधी ने सर-ए-शाम बुझाया मुझ को

कैसे भूलूंगा वो ही वस्ल के लम्हे
याद आता रहा ज़ुल्फ़ो का ही साया मुझ को

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